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Saturday, November 23, 2013

रात के सन्नाटे में 
टिक टिक करती घड़ी की सुइयां 
अहसास कराती हैं 
अपने अकेलेपन का 
याद दिलाती हैं भूले बिसरे दिन 
और कहती हैं कि 
बहुत हो गया आ अब लौट चलते हैं 
उन बस्तियों में जहाँ से 
शुरू किया था तूने 
ये कभी ना ख़त्म होने वाला 
सफ़र ...................
श्वेत

Friday, September 20, 2013

               “संसद का बदलता स्वरूप: बहस के प्रति उदासीनता”


 “किसी कार्यशील एवं जीवंत लोकतान्त्रिक समाज में सूखा पड़ सकता है, पर दुर्भिक्ष नहीं पड़ता | लोग भूख से नहीं मरते क्योंकि वहां प्रतिरक्षी राजनीतिक शक्ति और स्वतंत्र प्रेस के चलते सत्य –तथ्य लगातार उद्घाटित होते हैं और सरकार-शासकीय एजेंसियों पर लोगों को बचाने का दबाव होता है |” अस्सी- नब्बे के दशक में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी दो पुस्तकों ‘पावर्टी एंड फेमिन ‘ और ‘डेवलपमेंट एंड फ्रीडम’ के जरिये इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था | किसी भी लोकतान्त्रिक देश के परिपेक्ष्य में यह तथ्य जरुरी भी है और सत्य भी |
किन्तु संसदीय प्रणाली वाले देश भारत में विगत कुछ वर्षों में संसद के क्रियाकलापों का स्वरुप जिस तरह से बदला है वह ना सिर्फ चिंता का विषय है अपितु यह भी सोचने पर विवश करता है कि जिन्हें चुन कर हम संसद में भेजते हैं क्या वह सच में हमारे हितों को लेकर सचेत हैं या फिर नहीं ?
संसद देश का सर्वोच्च स्थान, लोकतंत्र का प्रतीक किसी भी लोकतान्त्रिक देश के लिए सबसे बड़ी संवैधानिक संस्था | जहाँ पर जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि आते हैं और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से जनता के हितों की सुरक्षा का जिम्मा लेते हैं| विश्व में लोकतंत्र के क्रियाकलापों के लिए दो तरह की प्रणालियाँ प्रचलित हैं , एक संसदीय प्रणाली और दूसरी अध्यक्षीय प्रणाली दोनों ही प्रणालियों में मूलभूत अंतर यह है कि अध्यक्षीय प्रणाली में स्थायित्व होता है जिसका मतलब यह है कि जो भी पार्टी पांच या छ साल के लिए चुन ली जाती है वह अपने निर्धारित कार्यकाल को बिना बाधा पूरा करती है | कार्यकाल की अवधि में उसके स्थगन का कोई प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता जब तक की कोई विकट परिस्थिति देश के समक्ष ना हो, ऐसी प्रणाली अमेरिका जैसे देशों में लागू है | दूसरी प्रणाली है संसदीय प्रणाली जिसका प्रमुख गुण है जवाबदेही (एकाउंटबिलिटी ) सरकार जनता के प्रति, विपक्षी दलों के प्रति जवाबदेह होती है | और यदि किसी मुद्दे पर निर्वाचित सरकार इस जवाबदेही को सुनिश्चित नहीं कर पाती तो उसे निश्चित समय से पहले भी स्थगित किया जा सकता है | और भारत में संसदीय प्रणाली है |
संविधान निर्माताओं ने भारत की विविधताओं को देखते हुए दोनों प्रणालियों में से संसदीय प्रणाली को इसलिए चुना था कि लोकतंत्र की बहाली में किसी भी प्रकार की कोई भी समस्या ना हो और यह सुचारू रूप से चलती रहे | देश में 1952 से लोकसभा चल रही है ,और पिछले साल ही लोकसभा ने अपने गठन के साठ वर्ष पूरे किये | पर जैसे जैसे दौर बदला, राजनीतिक परिदृश्य बदला वैसे वैसे संसद का स्वरुप और स्वभाव भी बदला |
ऐसा नहीं की संसद में हंगामे आज से पहले नहीं हुए हैं अगर आप को ऐसा लगता है तो आपको हरिशंकर परसाई जी के व्यंगों को जरूर पढना चाहिए उसमें भी विशेषकर “संसद और मंत्री की मूंछ” | व्यंग की शुरुआत ही परसाई जी ने बड़े जोरदार तरीके से की है कुछ लाइने देखें ‘संसद की कार्यवाही को लेकर बार बार यह बात उठाई जाती है कि प्रति दिन संसद पर कितना खर्चा आता है ? प्रति मिनट कितने रुपये लग जाते हैं ? हर प्रश्न पर कितना खर्च होता है ? ये सवाल यों बेमानी है संसद किसी से पैसा माँगने नहीं जाती | वह खुद बजट पास करती है | जो बजट पास करे उसे चाहे जितना खर्च करने का हक़ है’ | गौरतलब है की संसद की एक दिन की कार्यवाही पर लगभग 8 करोड़ रुपये का खर्च आता है| संसद के दोनों सदनों राज्यसभा और लोकसभा के लिए इस समय आवंटित बजट लगभग 550 करोड़ का है |ये तो सिर्फ वह धनराशि है जो संसद को सुचारू रूप से चलने के लिए दी जाती है इसके अलावा संसद में जो समितियां बनती हैं जिनकी अध्यक्षता यही माननीय सांसद लोग ही करते है इनके “अध्ययन यात्रा “ पर भी अरबों रुपये बर्बाद किये जाते हैं | ये अध्ययन यात्राएँ इसलिए होती हैं कि वे अपने विषय से सम्बंधित जानकारी हासिल करें और उनका प्रयोग नियम बनाते वक्त करें , अब ये निति निर्माता क्या बनाते है और वह लागू कैसे होता है ये हम सब बेहतर जानते है |
संसद की गरिमा उसकी उपयोगिता को लेकर सांसद कितने गंभीर हैं यह आये दिन संसद में होने वाली कारगुजारियों से स्पष्ट होता है | दलीय राजनीति संसद की कार्यवाही पर भारी पड़ रहे हैं | पिछले कुछ  वर्षों में देखें तो संसद के तीनों ही सत्र लगातार हंगामें की भेंट चढ़ते आ रहे हैं | ना ही किसी बात पर कोई तार्किक सवाल जवाब और ना ही किसी बिल को लेकर कोई सार्थक बहस, संसद में पिछले कुछ सालों में इसकी भारी कमी देखने को मिली | २००९ में लोकसभा के शीतकालीन सत्र में प्रश्नकाल के लिए 28 सांसदों के तारांकित सवाल सूचीबद्ध थे और प्रश्नकाल के समय इनमें से किसी भी सदस्य ने उपस्थित रहना जरूरी नहीं समझा | देश की सर्वोच्च संस्था की हालत आज किसी सिनेमा हाल जैसी हो गई है जहाँ लोग आते हैं थोड़ी देर मूवी देखते हैं हो हल्ला और मस्ती करते हैं फिर अपने-अपने घरों को चल देते हैं | हमारे राज नेता अब तो अपनी राजनीतिक गरिमा को भी खोते जा रहे हैं, जवाबदेही को कौन कहे अब तो आये दिन संसद में जूतमपैजार देखने को मिल जाता है |
विपक्षी पार्टियाँ जिन मुद्दों को जवलंत कह कर लोकसभा में उठा रही हैं वो मुद्दे शायद इतना जल रहे हैं कि हर दिन सदन के स्थगन की नौबत आ जा रही है जबकि यह सभी जानते है की सदन में जिन भी मुद्दों पर चर्चा होनी रहती है उस पर पहले ही अध्यक्ष के सामने बात हो जाती है अगर सबकी सहमती बनती है तभी उस मुद्दे को चर्चा के लिए सदन में लाया जाता है |
जब यह बात पहले ही पता होती है की आज इस मुद्दे पर चर्चा करना या कराना है तो उस पर इतना हो हल्ला क्यों मचता है क्यों सदन में बात रखने पर पक्ष या विपक्ष मुकर जाता है और सदन में हंगामा बरपा देता है तथा संसद को चलने नहीं देता |
इसमें दो बाते हैं एक तो यह पक्ष या विपक्ष जानबूझ कर संसद के सत्र को चलने नहीं देता दूसरी बात यह की अध्यक्ष सारी बातों को जानते हुए उस पर कोई कदम नहीं उठाते जबकि अध्यक्ष को संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए बहुत सारे अधिकार मिले हुए हैं जिनका उपयोग वह कर सकता है लेकिन अभी तो संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष महोदय को लगता है सिर्फ एक ही नियम याद रह गया है और वो है स्थगन |एक समय ऐसा था जब यही संसद अपने कार्यकाल को लेकर हमेशा चर्चा में रही ज्योति बासु, जार्ज फर्नाडिस आदि कुछ ऐसे नेता थे जो संसद में प्रश्नकाल, शून्यकाल आदि समय में बहस करने प्रश्नों को रखने के लिए मशहूर थे | अब तो ऐसा कोई भी दिखाई नहीं पड़ता 2009 में जब बहुत सारे युवा नेता संसद में आये तो उनसे एक उम्मीद बनी की शायद ये संसद की इस चलती हुई परिपाटी को बदलेंगे और एक नया दौर शुरू होगा, लेकिन अफ़सोस इन्होंने पुरानी पीढ़ी से सबक ना लेकर वर्तमान नेताओं के कदमताल पर चलना ज्यादा उचित समझा |
संसद का काम बाधित होने की वजह से नए पुराने 104 विधेयक लटके पड़े हैं इनमें से कई विधेयक आम जनता, देश के आर्थिक, सामाजिक, और सुरक्षा से जुड़े विषयों से सम्बंधित हैं | इतने महत्वपूर्ण मुद्दों से जुड़े विधेयकों का सिर्फ हंगामे की वजह से रुके रहना सांसदों की अस्थिरता को ही दर्शाता है | शुरूआती दशकों में औसतन प्रति वर्ष 70-80 विधेयक पारित होते थे अब घटकर औसतन 40 रह गए हैं .१९७६ में संसद ने रिकार्ड 118 विधेयक पारित किये और 2004 में मात्र 18 विधेयक पारित हुए | हैरत की बात तो यह है की कुछ विधेयक तो महज दो से चार मिनट में पारित हो गए जब की एक एक विधेयक पर बहस करने के लिए उसे प्रभावी बनाने के लिए कम से कम दो से तीन दिन का समय मिलता है | रेलवे और सामन्य बजट की अनुदानों की अनुपूरक मांगों से सम्बंधित चार विधेयक दोनों सदनों में हंगामे के बीच बिना बहस के महज चार और सात मिनट में पारित हो गए |
संसदीय बहस को मजबूत करने के लिए काम करने वाली संस्था “बी आर एस लेजिस्लेटिव रिकार्ड “ के अध्ययन के मुताबिक 14वीं लोकसभा के अंतिम दिन केवल 17 मिनट के दौरान आठ विधेयक पारित किये गए | संसद में सांसदों की उपस्थिति भी एक बड़ा मुद्दा है 80 के दशक से पहले देखे तो सदन का सत्र शुरू होने पर संसद भरी होती थी सांसद आते थे और सदन की पूरी कार्यवाही में हिस्सा लेते थे पर अभी तो उपस्थिति भी एक बड़ा सवाल हो गई है आधे से अधिक सांसद तो आते ही नहीं और जो आते भी हैं वे या तो सोते हुए पाए जाते है या फिर उंघते हुए |
प्रश्नकाल हो चाहे शून्यकाल , धारा 185 या फिर 184, विहिप यह कुछ ऐसे नियम हैं जिनका इस्तेमाल करके सत्ताधारी पार्टी पर लगाम लगाया जा सकता है अर्थात अगर सरकार के क्रियाकलाप जनता के हित में ना हो तो उन पर प्रश्नचिंह लगाया जा सकता है और सरकार की बर्खास्तगी की मांग की जा सकती है | किन्तु इन नियमों का इस्तेमाल तभी किया जा सकता है जब की संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले वह स्थगन या हंगामें रूपी बुखार से बची रहे तभी इन नियमों के तहत काम संभव है |
सदन के अध्यक्ष के पास इस बात का पूरा अधिकार होता है कि वह सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए कड़े कदम उठा सकता है | किन्तु संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों की लाचारी देखते बनती है, इन्हें देख कर तो कभी कभी ऐसा लगता है की इन्हें शपथ ही दो शब्द कहने के लिए दिलाया जाता है , बैठ जाइए ,शांत हो जाइए जैसे शब्द ऐसा लगता है की इसके अलावा ये कुछ करना ही नहीं चाहते इससे ज्यादा कुछ करने पर उतरते हैं तो सीधे स्थगन बीच के सारे नियम भूल चुके हैं ये लोग |
बार बार का स्थगन, हंगामा यह हमारी राजनितिक असफलता को दर्शाता है पिछले तीन सालों का रिकार्ड उठा कर अगर देखें तो 100 दिन तक भी संसद नहीं चली है | लोकसभा में 127 दिन औसतन काम होता था जो अब घटकर 70 दिन हो गया है और इसमें भी लगातार कमी ही हो रही है | संसद की हालत देखकर लगता है की संसद नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली तर्ज पर चल रही है | पिछले साल संसद में ७३ दिन यानी सिर्फ 800 घंटे काम हुआ उसमें भी लगभग 30 फीसदी हंगामें की भेंट चढ़ गया | संसद में हंगामें की वजह से बर्बाद हुए समय को अगर देखे तो इसमें लगातार वृद्धि हुई है जैसे 11 वीं लोकसभा में यह 5 फीसदी ,१२ वीं लोकसभा में 10 फीसदी, 13 वीं लोकसभा में 20 फीसदी , 14 वीं लोकसभा में 38 फीसदी और 15 वीं लोकसभा में हालात और बदतर होते जा रहे हैं | इससे राजनीति का और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का एक वीभत्स रूप उभर कर हमारे सामने आता है |
लोकतंत्र का स्वर्णयुग अगर लाना है तो सभी राजनीतिक दलों को इस पर विचार करना होगा कि भारत जैसे बड़े देश में संसद की गरिमा को बनाये रखना सबसे अहम् है | स्वस्थ्य राजनीति किसी भी मुल्क की आधारशिला होती है | अगर आधारशिला में ही दीमक लग जाए तो महल को धराशायी होने से कोई नहीं रोक सकता | अतैव जरुरी है कि संसद सदस्यों के साथ साथ स्पीकर भी अपनी जिम्मेदारियों को समझे और जरुरत पड़ने पर अपने अधिकारों का प्रयोग करे जिससे की लोकतंत्र की गरिमा और लोगों की लोकतंत्र पर आस्था को कोई चोट ना पहुंचे |


 श्वेता यादव 
            “नारी सबलीकरण: नया विमर्श”

कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हकीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है एक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारिख का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे

मशहूर शायर कैफी आज़मी जी की इन चंद लाइनों में औरत के अस्तित्व की क्या खूब कहानी है| किसी भी राष्ट्र की प्रगति को नापने का बैरोमीटर है वहां के स्त्रियों की स्थिति| ऐसा माना जाता है की जिस राष्ट्र की महिलाएं खुश है, संपन्न एवं शिक्षित हैं, वहां के कार्यक्षेत्र में बढ़चढ कर हिस्सा ले रही हैं तो समझिए वह राष्ट्र संपन्न है और उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता| इस हिसाब से अगर हम देखें तो हमारे राष्ट्र को बधाई मिलनी चाहिए अब आपका सवाल होगा क्यों? तो क्यों नहीं? मेरी समझ से हमारे देश के बहुत सारे महत्वपूर्ण पदों पर वर्तमान और अतीत दोनों को ही अगर हम देखें तो महिलायें आसीन है और थी भी|
इतिहास में ज्यादा पीछे ना जाकर अगर इंदिरा गाँधी जी से ही शुरू करें तो वो विश्व में सर्वाधिक लंबे कार्यकाल वाली पहली महिला प्रधानमंत्री हैं, श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति थी, वर्त्तमान में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, सत्ता पक्ष का नेतृत्व कर रही सोनिया गाँधी, नेता प्रतिपक्ष के रूप में कुशलता से अपनी जिम्मेदारियों का वहन करती सुषमा स्वराज, दलित आन्दोलनों के गर्भ से निकली मुखर और प्रभावशाली महिला जो की कई बार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का पद संभाल चुकी है और फिलहाल एक मजबूत विपक्षी दल की मुखिया - सुश्री मायावती, बंगाल में सत्ता को पलटने वाली तृणमूल की नेता ममता बनर्जी इत्यादि| इनके नाम और ओहदों को सुनकर कितना गर्व जगता है स्त्री होने पर और साथ में यह दंभ भी उठता है की हम तो भारत जैसे देश में रहते हैं| पर क्या यह पूरी सच्चाई है, स्त्री विमर्श का जो मुद्दा लेकर पूरा विश्व चल रहा है जो दुनिया में आधी आबादी मानी जाती है तथा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है क्या भारत में ऊपर जो उदहारण दिए हैं उनको देखते हुए इस संघर्ष पर विराम लगा देना चाहिए या फिर ज़मीनी हकीकत इन चंद उपलब्धियों की तुलना में अभी बहुत दूर है| ऐसे बहुत सारे सवालो के जवाब शायद अभी बाकी हैं|
बड़ी विडम्बना है इस देश की यहाँ के लोग कहते हैं हमारे पास एक महान संस्कृति और विशाल परंपरा है हमारा देश एक सभ्य समाज वाला देश है जहाँ औरत को औरत का नहीं देवी का दर्जा दिया जाता है उसे पूजा जाता है| फिर सवाल उठता है की जिस देश में स्त्री को देवी का रूप माना जाता है जिसकी पूजा की जाती है उसी की इस देश में इतनी दुर्दशा क्यों? क्यों आये दिन बलात्कार हो रहे हैं क्यों इसी देश में यौन शोषण रुकने का नाम नहीं ले रहा, क्यों यहाँ अगर लड़की किसी का विरोध करती है तो बदले में उसका चेहरा तेजाब से बिगाड़ दिया जाता है इसी सभ्य समाज में सबसे ज्यादा लड़किया दहेज की वजह से मारी जाती हैं, कन्या भ्रूण हत्या की क्या हालत है यहाँ वो किसी से छिपी नहीं, इसी देश में देह व्यापर जैसा जघन्य अपराध व्यापक पैमाने पर चलता है हर शहर में आपको रेड लाईट एरिया मिल जायेंगे और बच्चे तक को भी यह पता होता है की रेड लाईट एरिया किसे कहते हैं|
ऐसा नहीं है की ये घटनाएँ सिर्फ भारत में ही होती हैं पर इसी देश को इंगित सिर्फ इसलिए कर रही हूँ क्योंकि भारत ही वह देश है जहाँ यह दंभ भरा जाता है की हम तो स्त्रियों को देवी मानते है उनकी पूजा करते हैं| दरअसल यह अपनी कमियों को छिपाने का सबसे आसान रास्ता है जिससे की हर सवाल से बचते हुए बेहद आसानी से स्त्रियों को दोयम दर्जे पर कायम रखा जा सके और इसके लिए सबसे आसान रास्ता है धर्म का रास्ता| धर्म, चाहे वह कोई भी धर्म हो एक ऐसी गहरी खाई है जिसने एक बार अगर किसी को मानसिक गुलाम बना लिया तो फिर जीवन भर उस गुलामी से निकलना मुश्किल है क्योंकि आँख के अंधे को तो फिर भी मन की आँखों से दिखाई पड़ सकता है, पर धर्मान्ध व्यक्ति जब भी किसी विषय को देखेगा तो धर्म के चश्में से ही देखेगा| मर्द कितने होशियार होते हैं उन्हें पता था की औरतों को अगर आगे बढ़ने से रोकना है और पीढ़ी दर पीढ़ी उनका यूँ ही शोषण करना है तो उन्हें मानसिक गुलाम बनाओ और ऐसे प्रपंच रचो की वो इस मानसिक गुलामी से कभी आज़ाद ही ना हो पाए|
भारत में हिंसा तथा भेदभाव की दर्दनाक घटनाओं को परम्परा की आड़ में न्यायोचित ठहरा दिया जाता है| आज भी भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में एक चौथाई से अधिक आबादी का यह मानना है की पुरुषों द्वारा स्त्री पर की गई हिंसा गलत नहीं वरन पुरुष का अधिकार है| इसे रोकने के लिए बहुत सारे प्रयास हुए हैं किन्तु जिस तरह की भयावह स्थिति अभी भी बनी हुई है वह ना सिर्फ चौकाने वाली है अपितु चिंताजनक भी है| संयुक्त राष्ट्र जनसँख्या कोष, के शोध के मुताबिक भारत में दो तिहाई से भी ज्यादा वैवाहिक स्त्रियां जिनकी उम्र पन्द्रह से लेकर ४९ के बीच है, पति द्वारा यौन उत्पीडन को लगातार झेलती हैं| इस उत्पीडन में पीटना, बलात्कार, जबरन सेक्स आदि शामिल हैं| हालांकि कई ऐसे देश हैं जहाँ वैवाहिक बलात्कार अवैध है| इनमें १८ अमेरिकी राज्य, फ़्रांस कनाडा ,स्वीडन, इसराइल इत्यादि है| इन देशों का नाम गिनाने के पीछे मेरा सिर्फ एक मकसद है इन देशों में तो स्त्रियां देवी की तरह नहीं पूजी जाती फिर भी उनकी रक्षा के लिए क़ानून है फिर भारत में क्यों नहीं?
दरअसल स्त्री को भगवान बना देने से समस्या का हल नहीं होगा स्त्री को सम्मान देना है तो पहले उसे इंसान का दर्जा तो दो भगवान बनाने की कोई जरूरत नहीं ये मर्दवादी समाज स्त्री को स्त्री ही रहने दे तो स्त्रियों की आधी समस्या का निराकरण ऐसे ही हो जाएगा|
बीते कुछ समय को देखे तो स्त्रिओं के प्रति होने वाली हिंसा में कोई कमी नहीं आई अपितु बढोत्तरी ही हुई है सोलह दिसंबर रेप केस के बाद कमेटी बनाई गई, फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई गई ताकि फैसला जल्द से जल्द हो सके और स्त्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके| किन्तु क्या हुआ दामिनी केस में अभी तक किसी को सजा नहीं हो सकी है और इतना ही नहीं जब पूरा देश दामिनी केस में सड़कों पर उतरकर अपना रोष ज़ाहिर कर रहा था और दोषियों की सजा की मांग कर रहा था तब ना जाने देश के हर कोने में और कितनी दामिनियों को तबाह किया जा रहा था|
हाल ही में हुआ मुंबई रेप केस, हरियाणा में एक दलित लड़की के साथ रेप करने के बाद उसे जिन्दा जलाना, एक तथाकतित धर्मगुरु आशाराम का एक नाबालिग लड़की के साथ रेप और उसके बाद पुलिस प्रशासन और जिस तरह से भाजपा तथा समाज में धर्मान्धता के शिकार उसके भक्तगण उसके बचाव में सामने आये ये सभी घटनाएँ समाज और कानून व्यवस्था की कोरी बातो की कलई खोलता है तथा तमाचा है सामजिक और न्यायिक व्यवस्था के मुहं पर| कोर्ट अगर मुजरिमों को सजा भी देगी तो ज्यादा से ज्यादा क्या, मौत की सजा पर क्या उससे ये घटनाएँ होनी रुक जायेंगी, अगर विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज जी की माने तो हाँ ऐसा करने से ये घटनाएँ रुक जायेंगी|
अफ़सोस होता है इन लोगों की बयान बाजी को सुनकर क्या सुषमा जी को पता नहीं की दामिनी से पहले बहुत सारे रेप केस ऐसे हैं जिसमें दोषियों को मौत की सजा मिल चुकी है पर फिर भी ये घटनाएँ हो रही हैं ऐसे में क्या यह जरूरी नहीं हो जाता की हमें इन घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है|
क्या ये घटनाये हमारे सामने सवाल नहीं खड़े करती की क्या सचमुच स्त्रियों के साथ जो कुछ भी घट रहा है उसके लिए सिर्फ सरकार और प्रशासन जिम्मेदार है या फिर इसकी जड़े समाज में कही गहरी जड़ी हुई हैं| कुछ तो है ऐसा जिसे या तो हम गलत समझ रहे हैं या फिर जान कर भी अनदेखा करने की कोशिश कर रहे है| मैं अपने अनुभव के आधार पर कहूँ तो जान कर भी अनदेखा करने की कोशिश कर रहे हैं लड़कियां जब से पैदा होती है तब से लेकर बड़े होने तक उन्हें यही समझाया जाता है की बेटा तुम्ही परिवार की इज्ज़त हो सारा सम्मान सब तुमसे ही है खैर सिर्फ बेटी ही पूरे परिवार की इज्ज़त कैसे है ये तो आज तक मुझे समझ में नहीं आया, पर हाँ इतना जरूर समझ में आया की राह चलने वाले मनचले रेप करने वाले मानसिक रोगियों को यह बात जरूर पता होती है की यह अपने परिवार की इज्ज़त है इसे नुकसान पहुचाओ|
कभी कोई परिवार ये क्यों नहीं समझाता की अगर तुम्हारे साथ कुछ गलत घाट जाए तो घबराना मत ये तुम्हारे लिए शर्म की बात नहीं जिसने की उसके लिए है तुमने तो कोई गलती नहीं की और शर्म उन्हें आती है जो गलती करते हैं| कोई भी समाज आगे बढ़ कर किसी पीड़ित लड़की की मानसिक रूप से मदद करने की बजाय उसके माथे पर ये क्यों लिख देता है की यह वही लड़की है जिसका रेप हुआ था| या फिर अरे ये तो पति द्वारा छोड़ी हुई है वगैरा-वगैरा | इतना ही नहीं आश्चर्य होता है बड़े पदों पर आसीन महिलाओं के बयान को सुनकर कभी ये लोग कपड़ों को दोष दे देती हैं, तो कभी रात में निकलने पर, कई लोगो ने तो ये तक कह डाला की “लड़कियों को अकेले घर से निकलना ही नहीं चाहिए क्योंकि द्रौपदी की रक्षा तो कृष्ण ने कर दी पर तुम्हारी रक्षा कोई नहीं करेगा|”
जो लोग नारी विमर्श की बात करते है उसे सबल बनाने की बात करते है पर उसके लिए तरीका जो इस्तेमाल करते हैं वो कम से कम मेरी समझ के तो बाहर है और इससे भी बड़ी बात यह की जो सहता है अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष भी उसे ही करना चाहिए कोई और क्यों? किसी मर्द को जब स्त्री संघर्ष, स्त्री मुक्ति की बात करते देखती हूँ, तो शक होने लगता है की क्या ये सच में स्त्रियों की पुरुषवादी सामजिक मानसिकता से मुक्ति की लड़ाई है, या फिर जाने अनजाने स्त्री कहीं और फंसती जा रही है|
मेरी नज़र में यदि किसी स्त्री को इस नरक से आज़ाद होना है तो उसकी सबसे पहली और एकमात्र शर्त है उसकी आर्थिक सबलता उसका आत्मनिर्भर होना, यही वह रास्ता है जिससे नारी अपने संघर्ष का बिगुल बजा सकती है, और अपने आत्मसम्मान और गौरव की रक्षा कर सकती है | इसके अलावा उसे अपनी लड़ाई को लेकर खुद होशियार होना पड़ेगा| मै इस मर्दवादी समाज से ये कहना चाहती हूँ, कि बहुत कर चुके तुम स्त्री अस्तित्व की रक्षा अब बस करो, हम खुद सचेत हो गई हैं और अपने हितों की रक्षा खुद कर सकती हैं| पुरुष बहुत ज्यादा ही महिलाओं के हितों की चिंता करने लगे हैं और नारी विमर्श का झंडा उठाने लगे हैं मुझे डर लगने लगा है उनकी इस हमदर्दी पर की कही उन्हें कुछ और स्वार्थ महिलाओं से साधने बाकी तो नहीं रह गए हैं|
मेरी नजर में, समाज स्त्रियों को पीछे रखने उनका शोषण करने वाला सबसे बड़ा दैत्य, क्योंकि वो बचपन से ही लड़के और लड़कियों में भेद करना सिखाता हैं| लड़के हैं तो बहार खेलने जायेंगे जहाँ मन करेगा घूमेंगे फिरेंगे मस्ती करेंगे वहीँ लड़कियां माँ के साथ काम में हाथ बटाती है, उन्हें बाहर खेलने की आज़ादी कम होती है| अगर कोई लड़की ये सब करना भी चाहती है तो उसे यह कह कर समझाया जाता है की तुम तो पराया धन हो तुम्हे किसी गैर के घर जाना है काम नहीं सीखोगी तो ससुराल में मायके वालो की नाक कटवा दोगी| इतना ही नहीं उन्हें यह भी सिखाया जाता है की कौन सा व्रत करने से कौन सी पूजा करने से उनकी शादी जल्दी होगी और उन्हें अच्छा पति मिलेगा जैसे गौरी पूजा सोलह सोमवार वगैरा वगैरा| इन सबके इतर लड़कियों को कभी नहीं बताया जाता की नहीं तुम्हारा भी पिता की संपत्ति में हक़ है, हम तुम्हे तुम्हारा अधिकार देंगे ऐसा कौन सा भाई या परिवार किसी लड़की से कहता है?
लड़की शादी के बाद जब तक मायके में मेहमान की तरह आती है तब तक तो वह बड़ी प्रिय होती है लेकिन अगर उसी सर्वगुण संपन्न बेटी ने पिता की जायदाद से अपना हक़ मांग लिया तो उसकी परिभाषा ही बदल जाती है, परिवार ही नहीं आस पास, समाज सब उसे लालची, मतलबी और ना जाने किस किस रूप से नवाज देते हैं| लड़कियों का कानून रूप से पिता की संपत्ति पर हक़ है पर बात जब सामजिक स्वीकारता पर आती है तो यह ना के बराबर है समाज के लिए तो बेटियां वही हैं पराया धन, और पराये धन का भी कोई कहीं हक़ होता है क्या?
 मैं ऐसा नहीं कहती की बदलाव हमारे समाज में नहीं हुए हैं .......हाँ बदलाव हुए है और होने भी चाहिए जिवंत समाज, देश, सरकार सभी का यही नियम है की उसे बदलाव की सतत बयार के साथ चलना पड़ता है तभी वह समाज आगे बढ़ सकता है| पुराने खोल से निकल कर स्त्री धीर धीरे अपने सपनो के आकाश में पंख फैला रही है और सतत उचाईयों को छूने का प्रयास कर रही है| पर समाज में अभी भी खोल के पीछे छिपे हुए भेड़िये उन्मुक्त घूम रहे हैं और जब चाह रहे हैं स्त्री के बढ़ते हुए कदम को रोक दे रहे हैं| क्योंकि उन्हें अभी भी यही लगता है की स्त्री दोयम दर्जे की वस्तु है और वे स्त्री को भोग्या से ऊपर कुछ और स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं हैं| क्योंकि स्त्री को इस पितृ सत्तात्मक समाज ने अपने हिसाब से तैयार किया था और अब जबकि स्त्री उस कवच को तोड़ कर बाहर निकल रही है तो मर्दवादी मानसिकता के लोगों को यह स्वीकार नहीं हो पा रहा| जरूरत है ऐसे लोगो को पहचानने की, इनसे सावधान रहने की तभी हम सफल हो पायेगें| सामजिक रूप से जब तक समानता नहीं मिलेगी, जब तक ये समाज स्त्री को दोयम दर्जे का समझना बंद नहीं करेगा और स्त्री का सम्मान नहीं करेगा तब तक कितने भी नियम कानून बन जाए स्त्री सुरक्षित नहीं हो सकती जरुरत है बदलाव के बयार की एक ऐसे बदलाव की जो हमारे सपनो को उम्मीदों को उसकी मंजिल तक पहुँचाने में हमारी मदद करे ना की हमारे रास्ते का रोड़ा बने| और ऐसा तभी संभव है जब हम अपनी लड़ाई खुद लड़ें कोई और हमारे हक़ के लिए जब तक लडेगा तब तक हम कभी आजाद नहीं हो सकते और न ही सुरक्षित| अगर ऐसा नहीं हुआ तो रेप केस के विरोध में जलने वाली मोमबतियां तो ख़तम हो जायेंगी लेकिन रेप होना नहीं|
हमारी भाषा हमारे द्वारा किया जाने वाला काम हमारी सोच से उभरते हैं शब्द यूँ ही कहीं आसमान से नहीं टपकते ,अनायास ही ना कोई कुछ करता है ना कहता है| अगर मैं घोर नारी वादी हूँ तो उसके पीछे भी बचपन से झेला हुआ मर्दवादी और सामंतवादी मूल्य ही है| जैसे जैसे पढ़ती गई बड़ी होती गई समझ के साथ गुस्सा और सवाल करने की क्षमता भी बढती गई और इन सवालों, तर्कों और भोगे हुए यथार्थ ने अब तक यही समझाया कि अगर हक़ पाना है तो लड़ना पड़ेगा| किसी और के भरोसे छेड़ी गई जंग से नहीं बल्कि खुद आगे बढ़कर इस लड़ाई की कमान को अपने हाथ में लेना होगा तभी मुक्ति संभव है|
!!!! श्वेता यादव !!!!!