“नारी सबलीकरण:
नया विमर्श”
कद्र अब तक
तेरी तारीख ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले
भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हकीकत भी
है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी
है एक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारिख का
उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान
मेरे साथ ही चलना है तुझे
मशहूर शायर कैफी आज़मी जी की इन चंद लाइनों
में औरत के अस्तित्व की क्या खूब कहानी है| किसी भी राष्ट्र की प्रगति को नापने का
बैरोमीटर है वहां के स्त्रियों की स्थिति| ऐसा माना जाता है की जिस राष्ट्र की
महिलाएं खुश है, संपन्न एवं शिक्षित हैं, वहां के कार्यक्षेत्र में बढ़चढ कर हिस्सा
ले रही हैं तो समझिए वह राष्ट्र संपन्न है और उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता|
इस हिसाब से अगर हम देखें तो हमारे राष्ट्र को बधाई मिलनी चाहिए अब आपका सवाल होगा
क्यों? तो क्यों नहीं? मेरी समझ से हमारे देश के बहुत सारे महत्वपूर्ण पदों पर
वर्तमान और अतीत दोनों को ही अगर हम देखें तो महिलायें आसीन है और थी भी|
इतिहास में ज्यादा पीछे ना जाकर अगर
इंदिरा गाँधी जी से ही शुरू करें तो वो विश्व में सर्वाधिक लंबे कार्यकाल वाली
पहली महिला प्रधानमंत्री हैं, श्रीमती प्रतिभा पाटिल देश की पहली महिला राष्ट्रपति
थी, वर्त्तमान में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, सत्ता पक्ष का नेतृत्व कर रही
सोनिया गाँधी, नेता प्रतिपक्ष के रूप में कुशलता से अपनी जिम्मेदारियों का वहन
करती सुषमा स्वराज, दलित आन्दोलनों के गर्भ से निकली मुखर और प्रभावशाली महिला जो
की कई बार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का पद संभाल चुकी है और फिलहाल एक मजबूत
विपक्षी दल की मुखिया - सुश्री मायावती, बंगाल में सत्ता को पलटने वाली तृणमूल की
नेता ममता बनर्जी इत्यादि| इनके नाम और ओहदों को सुनकर कितना गर्व जगता है स्त्री
होने पर और साथ में यह दंभ भी उठता है की हम तो भारत जैसे देश में रहते हैं| पर
क्या यह पूरी सच्चाई है, स्त्री विमर्श का जो मुद्दा लेकर पूरा विश्व चल रहा है जो
दुनिया में आधी आबादी मानी जाती है तथा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है
क्या भारत में ऊपर जो उदहारण दिए हैं उनको देखते हुए इस संघर्ष पर विराम लगा देना
चाहिए या फिर ज़मीनी हकीकत इन चंद उपलब्धियों की तुलना में अभी बहुत दूर है| ऐसे
बहुत सारे सवालो के जवाब शायद अभी बाकी हैं|
बड़ी विडम्बना है इस देश की यहाँ के लोग
कहते हैं हमारे पास एक महान संस्कृति और विशाल परंपरा है हमारा देश एक सभ्य समाज
वाला देश है जहाँ औरत को औरत का नहीं देवी का दर्जा दिया जाता है उसे पूजा जाता
है| फिर सवाल उठता है की जिस देश में स्त्री को देवी का रूप माना जाता है जिसकी
पूजा की जाती है उसी की इस देश में इतनी दुर्दशा क्यों? क्यों आये दिन बलात्कार हो
रहे हैं क्यों इसी देश में यौन शोषण रुकने का नाम नहीं ले रहा, क्यों यहाँ अगर
लड़की किसी का विरोध करती है तो बदले में उसका चेहरा तेजाब से बिगाड़ दिया जाता है
इसी सभ्य समाज में सबसे ज्यादा लड़किया दहेज की वजह से मारी जाती हैं, कन्या भ्रूण
हत्या की क्या हालत है यहाँ वो किसी से छिपी नहीं, इसी देश में देह व्यापर जैसा
जघन्य अपराध व्यापक पैमाने पर चलता है हर शहर में आपको रेड लाईट एरिया मिल जायेंगे
और बच्चे तक को भी यह पता होता है की रेड लाईट एरिया किसे कहते हैं|
ऐसा नहीं है की ये घटनाएँ सिर्फ भारत में
ही होती हैं पर इसी देश को इंगित सिर्फ इसलिए कर रही हूँ क्योंकि भारत ही वह देश
है जहाँ यह दंभ भरा जाता है की हम तो स्त्रियों को देवी मानते है उनकी पूजा करते
हैं| दरअसल यह अपनी कमियों को छिपाने का सबसे आसान रास्ता है जिससे की हर सवाल से
बचते हुए बेहद आसानी से स्त्रियों को दोयम दर्जे पर कायम रखा जा सके और इसके लिए
सबसे आसान रास्ता है धर्म का रास्ता| धर्म, चाहे वह कोई भी धर्म हो एक ऐसी गहरी
खाई है जिसने एक बार अगर किसी को मानसिक गुलाम बना लिया तो फिर जीवन भर उस गुलामी
से निकलना मुश्किल है क्योंकि आँख के अंधे को तो फिर भी मन की आँखों से दिखाई पड़
सकता है, पर धर्मान्ध व्यक्ति जब भी किसी विषय को देखेगा तो धर्म के चश्में से ही
देखेगा| मर्द कितने होशियार होते हैं उन्हें पता था की औरतों को अगर आगे बढ़ने से
रोकना है और पीढ़ी दर पीढ़ी उनका यूँ ही शोषण करना है तो उन्हें मानसिक गुलाम बनाओ
और ऐसे प्रपंच रचो की वो इस मानसिक गुलामी से कभी आज़ाद ही ना हो
पाए|
भारत में हिंसा तथा भेदभाव की दर्दनाक
घटनाओं को परम्परा की आड़ में न्यायोचित ठहरा दिया जाता है| आज भी भारत के लगभग
सभी क्षेत्रों में एक चौथाई से अधिक आबादी का यह मानना है की पुरुषों द्वारा
स्त्री पर की गई हिंसा गलत नहीं वरन पुरुष का अधिकार है| इसे रोकने के लिए बहुत
सारे प्रयास हुए हैं किन्तु जिस तरह की भयावह स्थिति अभी भी बनी हुई है वह ना
सिर्फ चौकाने वाली है अपितु चिंताजनक भी है| संयुक्त
राष्ट्र जनसँख्या कोष, के शोध के मुताबिक भारत में दो
तिहाई से भी ज्यादा वैवाहिक स्त्रियां जिनकी उम्र पन्द्रह से लेकर ४९ के बीच है,
पति द्वारा यौन उत्पीडन को लगातार झेलती हैं| इस उत्पीडन में पीटना, बलात्कार,
जबरन सेक्स आदि शामिल हैं| हालांकि कई ऐसे देश हैं जहाँ वैवाहिक बलात्कार अवैध है|
इनमें १८ अमेरिकी राज्य, फ़्रांस कनाडा ,स्वीडन, इसराइल इत्यादि है| इन देशों का
नाम गिनाने के पीछे मेरा सिर्फ एक मकसद है इन देशों में तो स्त्रियां देवी की तरह
नहीं पूजी जाती फिर भी उनकी रक्षा के लिए क़ानून है फिर भारत में क्यों नहीं?
दरअसल स्त्री को भगवान बना देने से समस्या
का हल नहीं होगा स्त्री को सम्मान देना है तो पहले उसे इंसान का दर्जा तो दो भगवान
बनाने की कोई जरूरत नहीं ये मर्दवादी समाज स्त्री को स्त्री ही रहने दे तो
स्त्रियों की आधी समस्या का निराकरण ऐसे ही हो जाएगा|
बीते कुछ समय को देखे तो स्त्रिओं के
प्रति होने वाली हिंसा में कोई कमी नहीं आई अपितु बढोत्तरी ही हुई है सोलह दिसंबर
रेप केस के बाद कमेटी बनाई गई, फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई गई ताकि फैसला जल्द से
जल्द हो सके और स्त्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके| किन्तु क्या हुआ
दामिनी केस में अभी तक किसी को सजा नहीं हो सकी है और इतना ही नहीं जब पूरा देश
दामिनी केस में सड़कों पर उतरकर अपना रोष ज़ाहिर कर रहा था और दोषियों की सजा की
मांग कर रहा था तब ना जाने देश के हर कोने में और कितनी दामिनियों को तबाह किया जा
रहा था|
हाल ही में हुआ मुंबई रेप केस, हरियाणा
में एक दलित लड़की के साथ रेप करने के बाद उसे जिन्दा जलाना, एक तथाकतित धर्मगुरु
आशाराम का एक नाबालिग लड़की के साथ रेप और उसके बाद पुलिस प्रशासन और जिस तरह से
भाजपा तथा समाज में धर्मान्धता के शिकार उसके भक्तगण उसके बचाव में सामने आये ये
सभी घटनाएँ समाज और कानून व्यवस्था की कोरी बातो की कलई खोलता है तथा तमाचा है
सामजिक और न्यायिक व्यवस्था के मुहं पर| कोर्ट अगर मुजरिमों को सजा भी देगी तो
ज्यादा से ज्यादा क्या, मौत की सजा पर क्या उससे ये घटनाएँ होनी रुक जायेंगी, अगर
विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज जी की माने तो हाँ ऐसा करने से ये घटनाएँ रुक
जायेंगी|
अफ़सोस होता है इन लोगों की बयान बाजी को
सुनकर क्या सुषमा जी को पता नहीं की दामिनी से पहले बहुत सारे रेप केस ऐसे हैं
जिसमें दोषियों को मौत की सजा मिल चुकी है पर फिर भी ये घटनाएँ हो रही हैं ऐसे में
क्या यह जरूरी नहीं हो जाता की हमें इन घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है|
क्या ये घटनाये हमारे सामने सवाल नहीं खड़े
करती की क्या सचमुच स्त्रियों के साथ जो कुछ भी घट रहा है उसके लिए सिर्फ सरकार और
प्रशासन जिम्मेदार है या फिर इसकी जड़े समाज में कही गहरी जड़ी हुई हैं| कुछ तो है
ऐसा जिसे या तो हम गलत समझ रहे हैं या फिर जान कर भी अनदेखा करने की कोशिश कर रहे
है| मैं अपने अनुभव के आधार पर कहूँ तो जान कर भी अनदेखा करने की कोशिश कर रहे हैं
लड़कियां जब से पैदा होती है तब से लेकर बड़े होने तक उन्हें यही समझाया जाता है की
बेटा तुम्ही परिवार की इज्ज़त हो सारा सम्मान सब तुमसे ही है खैर सिर्फ बेटी ही
पूरे परिवार की इज्ज़त कैसे है ये तो आज तक मुझे समझ में नहीं आया, पर हाँ इतना
जरूर समझ में आया की राह चलने वाले मनचले रेप करने वाले मानसिक रोगियों को यह बात
जरूर पता होती है की यह अपने परिवार की इज्ज़त है इसे नुकसान पहुचाओ|
कभी कोई परिवार ये क्यों नहीं समझाता की
अगर तुम्हारे साथ कुछ गलत घाट जाए तो घबराना मत ये तुम्हारे लिए शर्म की बात नहीं
जिसने की उसके लिए है तुमने तो कोई गलती नहीं की और शर्म उन्हें आती है जो गलती
करते हैं| कोई भी समाज आगे बढ़ कर किसी पीड़ित लड़की की मानसिक रूप से मदद करने की
बजाय उसके माथे पर ये क्यों लिख देता है की यह वही लड़की है जिसका रेप हुआ था| या
फिर अरे ये तो पति द्वारा छोड़ी हुई है वगैरा-वगैरा | इतना ही नहीं आश्चर्य होता है
बड़े पदों पर आसीन महिलाओं के बयान को सुनकर कभी ये लोग कपड़ों को दोष दे देती हैं,
तो कभी रात में निकलने पर, कई लोगो ने तो ये तक कह डाला की “लड़कियों को अकेले घर
से निकलना ही नहीं चाहिए क्योंकि द्रौपदी की रक्षा तो कृष्ण ने कर दी पर तुम्हारी
रक्षा कोई नहीं करेगा|”
जो लोग नारी विमर्श की बात करते है उसे
सबल बनाने की बात करते है पर उसके लिए तरीका जो इस्तेमाल करते हैं वो कम से कम
मेरी समझ के तो बाहर है और इससे भी बड़ी बात यह की जो सहता है अपनी मुक्ति के लिए
संघर्ष भी उसे ही करना चाहिए कोई और क्यों? किसी मर्द को जब स्त्री संघर्ष, स्त्री
मुक्ति की बात करते देखती हूँ, तो शक होने लगता है की क्या ये सच में स्त्रियों की
पुरुषवादी सामजिक मानसिकता से मुक्ति की लड़ाई है, या फिर जाने अनजाने स्त्री कहीं
और फंसती जा रही है|
मेरी नज़र में यदि किसी स्त्री को इस नरक
से आज़ाद होना है तो उसकी सबसे पहली और एकमात्र शर्त है उसकी आर्थिक सबलता उसका
आत्मनिर्भर होना, यही वह रास्ता है जिससे नारी अपने संघर्ष का बिगुल बजा सकती है,
और अपने आत्मसम्मान और गौरव की रक्षा कर सकती है | इसके अलावा उसे अपनी लड़ाई को
लेकर खुद होशियार होना पड़ेगा| मै इस मर्दवादी समाज से ये कहना चाहती हूँ, कि बहुत
कर चुके तुम स्त्री अस्तित्व की रक्षा अब बस करो, हम खुद सचेत हो गई हैं और अपने
हितों की रक्षा खुद कर सकती हैं| पुरुष बहुत ज्यादा ही महिलाओं के हितों की चिंता
करने लगे हैं और नारी विमर्श का झंडा उठाने लगे हैं मुझे डर लगने लगा है उनकी इस
हमदर्दी पर की कही उन्हें कुछ और स्वार्थ महिलाओं से साधने बाकी तो नहीं रह गए
हैं|
मेरी नजर में, समाज स्त्रियों को पीछे रखने
उनका शोषण करने वाला सबसे बड़ा दैत्य, क्योंकि वो बचपन से ही लड़के और लड़कियों में
भेद करना सिखाता हैं| लड़के हैं तो बहार खेलने जायेंगे जहाँ मन करेगा घूमेंगे
फिरेंगे मस्ती करेंगे वहीँ लड़कियां माँ के साथ काम में हाथ बटाती है, उन्हें बाहर
खेलने की आज़ादी कम होती है| अगर कोई लड़की ये सब करना भी चाहती है तो उसे यह कह कर
समझाया जाता है की तुम तो पराया धन हो तुम्हे किसी गैर के घर जाना है काम नहीं
सीखोगी तो ससुराल में मायके वालो की नाक कटवा दोगी| इतना ही नहीं उन्हें यह भी
सिखाया जाता है की कौन सा व्रत करने से कौन सी पूजा करने से उनकी शादी जल्दी होगी
और उन्हें अच्छा पति मिलेगा जैसे गौरी पूजा सोलह सोमवार वगैरा वगैरा| इन सबके इतर
लड़कियों को कभी नहीं बताया जाता की नहीं तुम्हारा भी पिता की संपत्ति में हक़ है,
हम तुम्हे तुम्हारा अधिकार देंगे ऐसा कौन सा भाई या परिवार किसी लड़की से कहता है?
लड़की शादी के बाद जब तक मायके में मेहमान
की तरह आती है तब तक तो वह बड़ी प्रिय होती है लेकिन अगर उसी सर्वगुण संपन्न बेटी
ने पिता की जायदाद से अपना हक़ मांग लिया तो उसकी परिभाषा ही बदल जाती है, परिवार
ही नहीं आस पास, समाज सब उसे लालची, मतलबी और ना जाने किस किस रूप से नवाज देते
हैं| लड़कियों का कानून रूप से पिता की संपत्ति पर हक़ है पर बात जब सामजिक
स्वीकारता पर आती है तो यह ना के बराबर है समाज के लिए तो बेटियां वही हैं पराया
धन, और पराये धन का भी कोई कहीं हक़ होता है क्या?
मैं ऐसा नहीं कहती की बदलाव हमारे समाज में नहीं
हुए हैं .......हाँ बदलाव हुए है और होने भी चाहिए जिवंत समाज, देश, सरकार सभी का
यही नियम है की उसे बदलाव की सतत बयार के साथ चलना पड़ता है तभी वह समाज आगे बढ़
सकता है| पुराने खोल से निकल कर स्त्री धीर धीरे अपने सपनो के आकाश में पंख फैला रही
है और सतत उचाईयों को छूने का प्रयास कर रही है| पर समाज में अभी भी खोल के पीछे
छिपे हुए भेड़िये उन्मुक्त घूम रहे हैं और जब चाह रहे हैं स्त्री के बढ़ते हुए कदम
को रोक दे रहे हैं| क्योंकि उन्हें अभी भी यही लगता है की स्त्री दोयम दर्जे की
वस्तु है और वे स्त्री को भोग्या से ऊपर कुछ और स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं
हैं| क्योंकि स्त्री को इस पितृ सत्तात्मक समाज ने अपने हिसाब से तैयार किया था और
अब जबकि स्त्री उस कवच को तोड़ कर बाहर निकल रही है तो मर्दवादी मानसिकता के लोगों
को यह स्वीकार नहीं हो पा रहा| जरूरत है ऐसे लोगो को पहचानने की, इनसे सावधान रहने
की तभी हम सफल हो पायेगें| सामजिक रूप से जब तक समानता नहीं मिलेगी, जब तक ये समाज
स्त्री को दोयम दर्जे का समझना बंद नहीं करेगा और स्त्री का सम्मान नहीं करेगा तब
तक कितने भी नियम कानून बन जाए स्त्री सुरक्षित नहीं हो सकती जरुरत है बदलाव के
बयार की एक ऐसे बदलाव की जो हमारे सपनो को उम्मीदों को उसकी मंजिल तक पहुँचाने में
हमारी मदद करे ना की हमारे रास्ते का रोड़ा बने| और ऐसा तभी संभव है जब हम अपनी
लड़ाई खुद लड़ें कोई और हमारे हक़ के लिए जब तक लडेगा तब तक हम कभी आजाद नहीं हो सकते
और न ही सुरक्षित| अगर ऐसा नहीं हुआ तो रेप केस के विरोध में जलने वाली मोमबतियां
तो ख़तम हो जायेंगी लेकिन रेप होना नहीं|
हमारी भाषा हमारे द्वारा किया जाने वाला
काम हमारी सोच से उभरते हैं शब्द यूँ ही कहीं आसमान से नहीं टपकते ,अनायास ही ना
कोई कुछ करता है ना कहता है| अगर मैं घोर नारी वादी हूँ तो उसके पीछे भी बचपन से
झेला हुआ मर्दवादी और सामंतवादी मूल्य ही है| जैसे जैसे पढ़ती गई बड़ी होती गई समझ
के साथ गुस्सा और सवाल करने की क्षमता भी बढती गई और इन सवालों, तर्कों और भोगे
हुए यथार्थ ने अब तक यही समझाया कि अगर हक़ पाना है तो लड़ना पड़ेगा| किसी और के
भरोसे छेड़ी गई जंग से नहीं बल्कि खुद आगे बढ़कर इस लड़ाई की कमान को अपने हाथ में
लेना होगा तभी मुक्ति संभव है|
!!!! श्वेता यादव !!!!!