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Sunday, February 13, 2011

शाम

इस तरह है की हर एक पेड  कोई मंदिर है ,
कोई उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढता है जो खराबी के बहाने कब से
चाक हर बाम ,हर एक दम का दमे आखिर है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिसम पर रख मले , माथे पे सिन्दूर मले
सर्निगुं बैठा है चुचा ना जाने कब से
इस तरह  है की पसे पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफाक पे फैलाया है यूँ सहर का दाम
दामने -वक्त से पैवस्त है यूँ दामने- शाम
अब कभी शाम बुझेगी ना अँधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी ना सबेरा होगा
आसमां आस लिए है की यह जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे ,वक्त का दमन छूटे
दे कोई शंख दुहाई कोई पायल बोले
कोई बुत जगे कोई सांवली घूंघट खोले
          फैज़ -अहमद -फैज़  

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